ABSTRACT:
समीक्षा के बिना किसी भी क्षेत्र या विषय की पहचान पूरी नहीं होती । हर क्षेत्र में समीक्षा ही वह मापदण्ड होती है जो सम्मपूर्ण कार्यक्षेत्र को हमारे सामने रखती है । यों तो समीक्षा का महत्व हर क्षेत्र में स्पष्ट है , पर कला - विषयों खासकर साहित्य में समीक्षा ही किसी कृतित्व - विशेष की स्पष्ट पहचान और स्तरीयता हमारे सामने रखती है । भारतीय साहित्य परंपरा में समीक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है और वह आदिकाल से ही प्रतिष्ठित है । हिंदी साहित्य की समीक्षा की जड़ें इतनी गहरी है कि उसे आसानी से संस्कृत साहित्य से जोड़ा जा सकता है । परंतु आज के संदर्भ में साहित्य के मापदण्ड एवं विषय - वस्तु में अनेक परिवर्तन देखने को मिलता है जाहिर है हर युग का साहित्य अपने युग के दाय को समेटने की भरपूर कोशिश करता है । डॉ . राजेन्द्र मिश्र के समीक्षा में कृति और कृतिकार के बदलते संबंधों के साथ ही उसके अपने चिरंतन रूप से जुड़े होने के महत्व का प्रतिपादन भी देखने को मिलता है । इसके साथ ही साहित्य में भाषा एवं अभिव्यक्ति के नये तरीकों को स्वीकारने की कठिनाईयों का भी समाधान मिश्र जी के विचारों की विशेषता है । प्रत्येक लेखक सामाजिक परिस्थिति के वर्णन के साथ ही व्यक्तिगत तौर पर कैसे भिन्न होता है , कैसे उसकी मिन्न में ही साहित्य अपना जीवत्व पाता है । इसे समझने के लिए मिश्रजी की समीक्षा हमें नया आयाम देती है । प्रत्येक साहित्यिक कृति के वाचन में एवं उसे अध्यापन के स्तर पर पढ़ने में आने वाली कठिनाईयों के साथ ही हमारी ओर से हो रहे उस कृति एवं कृतिकार के प्रति अन्याय का तीखा व्यंग्य भी मिश्रजी की समीक्षा का एक अंग है । साहित्य जितनी बार और जितने लोगों के द्वारा पढ़ा जायेगा उतना ही नया अर्थ वह हर काल के अनुसार देता है - यह मान्यता मिश्रजी के आज के पाठकों को सार्थक महसूस होने लगी है । इन स्थापनाओं के साथ ही एक राष्ट्रीय और भारतीय चिंतक के रूप में भी उनकी आलोचना हमें देखने को मिलती है । आज के बौद्धिक वर्ग की खामोशियों भारतीयता के लिए कितना घातक है । इसकी चिंता उनके आलोचना कर्ग को नया आयाम देता है ।
Cite this article:
द्विवेदी (2012). राजेन्द्र मिश्र बहुआयामी व्यक्तित्व. Journal of Ravishankar University (Part-A: Science), 17(1), pp.30-34.